बुकहंगामा टॉप २० - स्पर्धेतील गोष्ट क्रमांक – १५
...काश! – प्रिया श्रीकांत
तबादला हुआ, और हम संथाल परगना नाम की जगहके लिए निकल पडे. सभ्य, विकसित जगहोंसे दूर ये जगह मेरे लिए बिलकुल नयी और अनोखी थी. पाकुडसे आमरापाडा का रास्ता उबडखाबड और पथरीला था. यहॉंसे गुजरते हुए प्रकृतीके इस अनछुए रूपको निहार रही थी. शुद्ध, साफ हवामें चावलके धानकी महक, कहीं भी उग आयी पेडोंकी कतारें, रास्तेमें सुखानेके लिए बिछाए हुए महुआ के फूल और उसकी तीव्र, मादक गंध ! सामने पहाडी नजर आ रही थी और कार्यक्षेत्र भी.
बरसों पहले देखी पुरानी फिल्म ‘मधुमती’ की याद आयी. वायुसेनाके इस क्षेत्रमें ही हमारी कर्मभूमी थी. लगा, हम जंगल में ही बसने जा रहें हैं. क्वार्टरके पास आए; हमारी गाडी रुकी. स्वागत की औपचारिकता पूरी होनेके बाद हमने नये मकानमें प्रवेश किया.मकान अच्छा था. उससे ज्यादा आसपासके पेडोंने, छोटी छोटी पहाडियोंने और प्रकृतीने मेरा मन मोह लिया. जामुन, पपीत, कटहल, अमरूद, आम तो जैसे बहुसंख्य हों.
‘’मॅडमजी, ये है ‘रुमकी’. आपके सर्वंट क्वार्टरमें इसका परिवार रहता है. ये आपके लिए काम करेगी.’’ गार्ड ने परिचय करवाया. बाकी सूचना देकर वह चला गया. मैं भी घर ठीक करनेमें लग गयी. दो दिनमें सब निपट गया. अब यह हमारा नया घर था. ‘’मॅडमजी, चा !’’ सामने चायका ट्रे रखकर वह कोनेमें खडी हो गयी. आज मैंने पहली बार ‘रुमकी’ को ध्यानसे देखा. सॉंवलासा रंग, बडीसी ऑंखें, बडे होंठ, फैलीसी नाक और भोलीसी मुसकान ! उसका नामभी ‘रुमकी’. बडा अलगसा मगर अच्छा लगा. बस तेरा सालकी ये पहाडी लडकी अपने आपमें निराली थी.
सवेरे सवेरे आ जाती और मेरे आगे पीछे डोलती रहती. काम करनेमें सफाई थी और गजबकी फुर्ती भी थी. मेरे घरमें काम करके फिर अपने घरमें काममें लग जाती थी. मनमें मुझे बुरा लगता. पढने-लिखनेके दिनोंमें वह घरबाहरके कामोंमें लगी हुई है. मैंने पूछ ही लिया,’’ क्यूं रुमकी, स्कूल नहीं जाती क्या?’’
‘’मॅडमजी, चार क्लास पढी, फिर छोड दिया. पढ लेती हूं, थोडा थोडा लिख भी लेती हूं. कहीं तो काम करनाही है ना?’’ मासूमसी लडकीका सरलसा जवाब ! कुछ थोडेही दिनोंमें मुझसे और परिवारवालोंसे घुलमिल गयी. उसका बाप मलेरियाकी दवाई छिडकनेका काम करता था. मॉं दो चार घरोंमें और कभी कभी खेतोंमें काम करती थी. घरमें पॉंच छः बच्चे थे और इसलिए रुमकी पर जिम्मेदारियॉं थी काम की. भगवान ने अच्छा खासा दिमाग दिया था; और उसे नयी नयी चीजें सीखनेका चाव भी था. ‘’मॅडमजी, ये क्या है, कैसे करते हैं?’’ पूछ लेती और सीख भी जाती. कभी अलसायी दोपहरमें आ जाती. ‘’मॅडमजी, आप मुझे बुनाई सिखा देंगे? मुझे
बुनना अच्छा लगता है. ‘’ मैंने भी घरमें पडी सुईयॉं और बची ऊनसे बुनाईके नमूने सिखा दिए. कभी बातें करती तो लगता था रुमकी को ‘आमरापाडा’ के पास पहाडीमें बसा ये छोटा गॉंव बहुत प्यारा है. वह मलेरिया, कालाजारसे त्रस्त लोगोंकी सेवा करना चाहती है. भोले भाले पहाडियोंको लूटनेवालोंको सबक सिखाना चाहती है…पहाडियोंमें रास्ता बनानेवाले आदिवासियोंके काममें हाथ बँटाना चाहती है. शिक्षासे वंछित बच्चोंको पढाना चाहती है. रुमकी की छोटी छोटी आकांक्षाएं, अपने लिए कम, दूसरोंके लिए ज्यादा थी. पहाडियोंके कठिन जीवनमें कुछ सुधार लानेकी बातें करती. उसकी दुनिया ‘आमरापाडा’, ‘लिट्टीपाडा’, ‘पाकुड’ तक ही सीमित थी; और सपनोंकी उडान ऊंची ऊंची. टी व्ही, अखबारोंकी खबरोंका अर्थ जानने की बहोत कोशिश करती थी. ‘क्यों? कैसे…?’ ऐसे प्रश्न उसके भीतर मचलते रहते. मैंने भांप लिया था कि इस भोलीसी रुमकीके अंदर महत्वाकांक्षाओंका आकाश है और ऊंचाइयोंको छूनेकी भरसक कोशिशमें वह है.
कल शामको मैं सैरके लिए गयी. पक्की सडक से चलते हुए अचानक पासकी झाडियोंमें रुमकी नजर आयी. अकेली पता नहीं क्या कर रही थी. उसीने आवाज दी, ‘’मॅडमजी, ये देखिए कितने सारे ‘सत्तौरी’ के पत्ते ! सेहत के लिए अच्छे होतें हैं. ध्यानसे देखनेपर पता चला कि ‘शतावरी’ के पत्ते हैं. तो वनौषधियॉं भी खूब जानती है ये लडकी! समय बीत रहा था. हमें डेढ साल हो गए थे यहॉं आए. रुमकी भी सयानी हो चली थी. फिरभी आइनेके सामने घंटों बिताना या मटर गश्ती करती फिरे ऐसी नहीं थी वो. अभावोंमें जी रही थी, फिरभी इन पहाडियोंकी साफ हवाओंने उसके गालोंपे हलकीसी गुलाबी आभा फैला दी. जंगलके फलोंने, झरनोंने उसे खिलाया पिलाया था.लग रहा था कि कलीकी पंखुडियॉं खिलनेपर हों. ..रुमकीसे खास रुझान हो गया था. उसकी बातोंसे पता चलता कि वह सेविका बन पहाडियोंके दुख दर्द में सेवा करना चाहती है.
हमारा तबादला चेन्नै हुवा. मैं सोचने लगी… बर्तन मॉंझने और कपडे धोनेमेंही उसकी जिंदगी ऐसेही बीत जाएगी. ये लडकी कुछ बन पाए तो अच्छा हो. अगर इसे साथ ले चलें तो शायद इसका जीवन सँवर जाए और मुझेभी आराम हो जाएगा. हमारे तौरतरीके, खानपान, रहनसहन से वह भलीभॉंती परिचित है. अच्छी निभ जाएगी.
फिर अच्छा लडका देखकर उसका ब्याह भी करा देंगे. मैंने पतिसे बात की. कुछ सोचकर उन्होंने कहा, ‘’ ठीक है, अगर तुम ऐसा चाहती हो तो… मगर फिरभी सोच लो…मैं उधेडबुनमें थी. उसे साथ ले जानेमें मेरा स्वार्थ भलेही हो, मगर अच्छा इरादा भी था. सच कहूं? मन कचोट रहा था. अब मैं रुमकीको अलग नजरोंसे देखने लगी. वो ढलानोंसे कूदकर नीचे आती, हवामें झटक झटककर कपडे सुखाते समय पहाडी हवाओंके झोंके उसके चेहरेपर फैली मुक्त लटाओंसे खेलते. उसकी फैली नाक और बडे होंठ भी अब उतने बुरे नहीं लग रहे थे. क्या ले चलें उसे? हफ्ताभर दिमागमें द्वंद्व चला. आज सवेरे ऑंगनमें रुमकीको देखा तो सोचा, ये पहाडोंमें पली बढी लडकी शहरकी आबो हवाओंमें कुम्हला जाएगी, ये मासुमियत खो जाएगी…उसके छोटे छोटे सपने धरे रह जाएंगे… क्या हासिल होगा? शहरकी जिंदगीकी आपाधापीमें इस वनकन्या को ले जाना याने उन्मुक्त आकाशमें सैर कर रहे पंछीको कैद करना…नहीं, नहीं… वह यहॉं पली बढी, यहीं रहे…आमरापाडासे निकलते समय रुमकी मुझसे लिपट लिपटकर रोयी. बिना कुछ कहे हम एकदूसरे को समझ रहे थे. और ऑंसू बह रहे थे. आखिर निकलनाही पडा.
आज डेढ साल बाद तबादला हुए आमडापाडा बँकके प्यूनसे अचानक मुलाकात हुई. पूरा हालहवाल पता चला. हम वहॉंसे जातेही 4 5 महीनेमें रुमकीके मॉंबापने पच्चीस हजार रुपये लेकर उसका ब्याह कलकत्ता के किसी ड्रायव्हरसे कराया (जो उम्र में उससे काफी बडा था). रुमकीका पता नहीं, लेकिन उसके मॉंबाप खुश थे.
मैं सुन्न रह गयी. गला रुलाईसे रुद्ध हो गया. इतनेमें टीव्ही देखते मेरे बेटेने आवाज दी, ‘’मम्मी देखो तो, वो बडी मछली छोटी मछलीको कैसे निगल गयी.’’