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अटेंडेंट–Varsha Velankar

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फार सुंदर कथा...वर्षाची...क्या बात है! खूप दिवसांनी हिंदी कथा...

अटेंडेंट – वर्षा वेलणकर

"मैडमजी, पसेंजर को ऐसे दरवज्जे पे बैठना मना हैं, जानती हैं ना आप?"

दो पैरोंके बिचसे नजर आती धड़धड़ाती पटरियोंपे टिकी नज़र को जबरन उठाकर उसने बोलनेवाले की ओर देखा। उसकी आँखोंमें घिर आई दहशत ने उसे झंकझोर दिया। उसकी एक हरकत किसी को इतना बेचैन कर सकती हैं, इस बातपर से तो उसका यकींन काफी पहले उठ गया था। उस अटेंडेंट की आँखों में लहराती दहशत से वो यकींन फिर झरता दिखाई दिया तो वो चौक गयी।

"मैडमजी, उठिए। टीसी साहब आ गए तो मुझे डाँट पड़ेगी।"

ये तो उसने होने नहीं देना था। अपने किये की किसी ओर को सज़ा मिले, ये उसे नामंजूर था। वो उठकर खड़ी होने लगी तो अटेंडेंट ने मदत के लिए हाथ बढ़ाया। वो उठ खड़ी हुई तो लड़के ने एक गहरी साँस ली। वो मुस्कुराई। एक साँस तो उसने भी फेफडोंमे भर ली। काफी देर से वो उसे रोके हुए दौड़ती पटरियोंको निहार रही थी। नजारा इतनी तेजी से दौड़ रहा था के साँस रुक गई थी।

"मैडमजी, आप चाय लेगी?"

वो फिर बोल पड़ा। उसकी हर बात में से एक कोशिश झलक रही थी। किसी अनहोनी को थामने की कोशिश। जो उसे दिखाई दे रहा था और दिमाग को खटक रहा था उस एक अनजाने डर से उबरने की कोशिश।दौड़ती रेल के एक खुले दरवाज़े पर पैर टांग कर जो डर उसने झूलता हुआ महसूस किया था, उसे थामने का भरकस प्रयास वो कर रहा था। लड़केकी बेचैनी को देख उसने चाय के लिए हामि भरी।

"आयीए इस तरफ। मैं अभी चाय लेकर आता हूँ।"

वो चला गया। वो फिर एक दौड़ती खयालोँकी की पटरी पर रेंगने लगी। जो सफ़र उसने शुरू किया था, उसका जायजा लेने की कोशिश से वो हाफ़ सी गई थी। साँसे फूलने लगी थी और पैरोंसे ताक़त नदारद होने लगी थी। सोच पे ताले पड गए थे। नजर धुंदलाने लगी थी। थोड़ी देर पहले पैरोंके निचे दौड़ती पटरियों से उसे चक्कर सी आने लगी थी। क्योंकि कुछ भी साफ़ नजर नहीं आ रहा था। सब कुछ दौड़ रहा था। अटेंडेंट की पलकोंसे झरती सारी बेचैनी अब उसके आंखोमे जमा हो गयी थी। वो चाय लेकर लौटा।

"पता है मैडमजी, जब दौड़ती पटरियोंको देखो तो लगता है की सब कुछ धुंदला है। सब एक साथ मिल जाता है और कुछ भी साफ़ साफ़ नजर नहीं आता। पर अगर नीची नजर को उठाकर आगे या पिछे देखो तो धुंदलका छट जाता हैं। फिर सिर्फ पेड़ ही नहीं तो पत्ते और फूल भी दिखायी देते हैं। लोहे की पटरियां, उसपर पड़े हुये पत्थर, लकडीकी प्लेटे और आजुबाजु बिछी बस्तियाँ भी एकदम नजर आती हैं। आप कोशिश कर के देखना। बस एक खयाल रहे के नजर निची न हो। नजर उठाके आगे-पीछे देखना बहोत जरुरी होता हैं मैडमजी।"

उसने चाय की चुस्की के साथ एक और सांस फेफडोंमे भर ली। अटेंडेंट को धन्यवाद भरी नजरोंसे देख कर वो वहाँ से चल दी। नजर उठाकर। उसके सफर का जायजा लेने के लिए।


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