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बस एक बार - Nikita Pusalkar

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अनेक कथा टॉप २० मध्ये नाही येऊ शकल्या...पण ती तुलानात्क्म लढाई होती...कथा चांगल्याच होत्या...वाचा..

बस एक बार - निकिता पुसाळकर

अनिल : अरे सुजय तुम यहाँ अकेले बैठे हों,अभीतक घर नहीं गये?

सुजय : घर जाकर क्या करूं?एक बेटी थी जिसकी रौनक से घर मे उजाला रहता था,उसकी बातें सुनते सुनते दिन कैसे निकल जाता,पता ही नहीं चलता था,जबसे उसकी शादी हो गई तबसे घर जाने के लिए कदम ही नहीं उठते......

अनिल : अरे दोस्त मेरे,बेटियां तो पराई हीं होती हैं, उनको एक दिन उनके अपने घर जाना हीं पडता हैं, बेटियों के साथ इतना लगाव अच्छा नहीं होता, इस जालिम दुनिया कि रीत ही अजीब है दोस्त...

सुजय : मालूम है मुझे अब वो नहीं आयेगी,फिर भी एक पिता चाहता है वो आ जाए,फिर से थंडी सुबह कि तरह,वो आ जाए करहाती गरमी मे रेशमी धूप कि तरह,मेरी गुड़िया कब इतनी बडी हो गई पता ही नहीं चला?अब तो सबका बोझ अपने कंधों पर उठाने लगी हैं, उसका एक एक पल सब मे बंटा हुआ हैं,सबके लिए जीते जीते अपने लिए जीना भूल गई हैं, हर एक का खयाल रखते खुद थक जाती हैं,लेकिन पापा को बुरा न लगें इसलियए दिखाती नहीं हैं, बस वक्त निकालके एक बार आ जाए,एक बार फिर से छोटी सी गुड़िया बनके आ जाए, थके हुए उसके तन को फिर से बचपन कि तरह अपने कंधों पर उठा लूंगा, शायद उसकी थकान कुछ तो कम हो जाए?बस एक बार आ जाए...... लेकिन किसी की बहू बनके नहीं, किसी की पत्नी बनके नहीं,किसी की माँ बनके नहीं,बस एक बार आ जाए,मेरी बेटी बनकर......बस एक बार आ जाए, बस एक बार आ जाए.......

कहते कहते उठकर सुजय जाने लगा औऱ अनिल उसकी जाती हुई परछाई देख रहा था,उसकी परछाई भी उसीकी तरह अकेली थी......


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